यूँ तो “प्यार” और ” प्रेम” जैसे शब्दों पर लिखना या बातें करना अब तक कभी मेरा विषय नहीं रहा, फिर भी पत्र-पत्रिकाओं में, इन्टरनेट पर बहुत सी चटपटी अटपटी सी चीजें देखि पढ़ी हैं।
जरा सोचो उन प्रेमियो के बारे में जिनका प्रीतम कहीं दूर अनाम-बेनाम सा अद्रश्य सा है, जो हवाओं में,आसमानों में बसता है, न कोई रंग, न कोई रूप, फिर भी कोई मतवाला आशिक़ ढूंढता फिरता है जंगल जंगल, पर्वत पर्वत। अपने प्रीतम से मिलने को बेकरार। वो जो बहुत करीब हो कर भी दूर है बहुत।।
ऐसी ही मतवाली मीरा भी तो थी, जो राज-काज छोड़ कर बावरी बनी नंगे पाँव अपने प्रीतम को खोजती हुई वृंदावन जा पहुंची।
…. मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई….
और ऐसे ही एक थे रहमान, जो यमुना किनारे, पेड़ों पर कान्हा को खोजते रहे। सूर की तो जैसे आंखें पथरा गयी खोजते खोजते – कब आएंगे कान्हा और पूछेंगे – सूर! तुम अब तक सोए नहीं ?
आखिर ये मतवाले प्रेमी भी तो हमारे बीच के ही थे, इंसान ही थे फिर भी ऐसी कौन सी चोट लगी थी की ये मतवाले हो गए और अपने प्रीतम को पाने के लिए बामुश्किल सीमाएं लांघ गए।।
कुछ ऐसा ही प्रेम वर्षों पहले हमने देखा अपने दादा-दादी के बीच। कैसे 12 वर्ष की दादी ने कदम रखा होगा दुल्हन बन, दादा के जीवन में और कैसे गुजार दी होगी अपनी हसीन जिंदगी। उस वक्त तो सुख की सारी कल्पना हाड तोड मेहनत में गुजर जाती थी। उन्होंने क्या नहीं किया दादा का अस्तित्व बनाए रखने में। आज भी जब दादा का पुराना घर देखो तो दादा-दादी के प्यार के, मेहनत के, लड़ाई-झगड़े के किस्से नजर आते हैं। सच तो यह है कि उन दिवारों को ढहा कर नई दीवारें खड़ी करना बेमानी सा होगा।
सच्चा प्यार कोई सडकों की वस्तु नहीं और न ही कोई आन्दोलन ही है और न ही कोई प्रदर्शन मात्र चीज है।
बेशक आप आज के समय में ऐसा खुदाई प्यार नहीं कर सकते पर फिर भी “प्यार” तो कर सकते हैं, उसकी खुश्बू को महसूस तो कर सकते हैं।
ऐसा संभव है की दो जन मिलकर एक हो सके सारी दूरियां मिटा के, सारे अहं मिटा के। अगर ये भी नहीं कर सकते तो फिर आप “प्यार” को बाजारू बना रहे हैं।।
जरा सोचो उन प्रेमियो के बारे में जिनका प्रीतम कहीं दूर अनाम-बेनाम सा अद्रश्य सा है, जो हवाओं में,आसमानों में बसता है, न कोई रंग, न कोई रूप, फिर भी कोई मतवाला आशिक़ ढूंढता फिरता है जंगल जंगल, पर्वत पर्वत। अपने प्रीतम से मिलने को बेकरार। वो जो बहुत करीब हो कर भी दूर है बहुत।।
ऐसी ही मतवाली मीरा भी तो थी, जो राज-काज छोड़ कर बावरी बनी नंगे पाँव अपने प्रीतम को खोजती हुई वृंदावन जा पहुंची।
…. मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई….
और ऐसे ही एक थे रहमान, जो यमुना किनारे, पेड़ों पर कान्हा को खोजते रहे। सूर की तो जैसे आंखें पथरा गयी खोजते खोजते – कब आएंगे कान्हा और पूछेंगे – सूर! तुम अब तक सोए नहीं ?
आखिर ये मतवाले प्रेमी भी तो हमारे बीच के ही थे, इंसान ही थे फिर भी ऐसी कौन सी चोट लगी थी की ये मतवाले हो गए और अपने प्रीतम को पाने के लिए बामुश्किल सीमाएं लांघ गए।।
कुछ ऐसा ही प्रेम वर्षों पहले हमने देखा अपने दादा-दादी के बीच। कैसे 12 वर्ष की दादी ने कदम रखा होगा दुल्हन बन, दादा के जीवन में और कैसे गुजार दी होगी अपनी हसीन जिंदगी। उस वक्त तो सुख की सारी कल्पना हाड तोड मेहनत में गुजर जाती थी। उन्होंने क्या नहीं किया दादा का अस्तित्व बनाए रखने में। आज भी जब दादा का पुराना घर देखो तो दादा-दादी के प्यार के, मेहनत के, लड़ाई-झगड़े के किस्से नजर आते हैं। सच तो यह है कि उन दिवारों को ढहा कर नई दीवारें खड़ी करना बेमानी सा होगा।
सच्चा प्यार कोई सडकों की वस्तु नहीं और न ही कोई आन्दोलन ही है और न ही कोई प्रदर्शन मात्र चीज है।
बेशक आप आज के समय में ऐसा खुदाई प्यार नहीं कर सकते पर फिर भी “प्यार” तो कर सकते हैं, उसकी खुश्बू को महसूस तो कर सकते हैं।
ऐसा संभव है की दो जन मिलकर एक हो सके सारी दूरियां मिटा के, सारे अहं मिटा के। अगर ये भी नहीं कर सकते तो फिर आप “प्यार” को बाजारू बना रहे हैं।।
©Shailla’z Diary
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