मेरा शहर बुलंदशहर,
जो शहर होकर भी शहर सा न रहा
ये जिंदगी का एक पड़ाव सा था
जहां जीवन ठहरा रहा,
एक बेचैन हवा की तरह
जो बहती है, कभी ठहर सी जाती है
आगे बड़ते-बड़ते कहीं मुड़ सी जाती है
ये हजार गली चैबारों का शहर
कहीं मिलती हैं तो कहीं बिछड़ी सी रहतीं हैं
कभी कहीं गुमनाम अंधेरों में गुम सी।
वो शहर,
जहां कंकड़ कंकड़ में शिव हैं रमते
सुबह की अजान में कबीर हैं बसते
शाम के दोहे रवि हैं रचते
जहां कोने कोने कृष्ण के जश्न हैं मनते
और, मीरा के गीत हैं गुंजते।
इतिहास से जुडाव रखने वाला मेरा ये शहर
गवाह है आम-ए-कत्लों का,जिसने
मौत का मातम नहीं खुशियां मनाई ।
मेरा शहर, शहर नहीं
ये बातों का बंतगड है
एक जीवन रेखा है, जहां आप का स्वागत है ।।
©shailla'z diary